संकेतकों को फिर से निकालने का खतरा क्या है?

तेज बारिश से नदी-नाले उफने, रपटों पर बाढ़ का पानी, 20 रुपए में पार निकाला जा रहा
हरदा. जिलेभर में गुरुवार को दिनभर तेज बारिश का दौर जारी रहा। इस दौरान नदी-नाले उफान पर आ गए। ग्रामीण क्षेत्रों का आवागमन घंटों बंद रहा। हालांकि कुछ लोगों ने जान जोखिम में डालकर बाढ़ के पानी में डूबे रपटे और पुल पार किए। जिन्होंने उनका हाथ पकड़कर रपटे पार कराए उन्होंने इसके एवज में 20 रुपए तक लिए। यहां रोकने-टोकने वाला कोई नहीं था। क्षेत्र के कई नदी-नालों के रपटों के साथ ही ऐसा दृश्य गुरुवार दोपहर नहालखेड़ा से नहाडिय़ा-झाड़पा मार्ग पर सुकनी नदी पर बनी पुलिया पर भी देखा गया। तेज बारिश के कारण पानी का बहाव इतना तेज था कि जरा पैर फिसले और जान के लाले पड़ जाएं। इसके बावजूद कई लोगों ने इसे पार किया। पुलिया पहले से ही क्षतिग्रस्त होने के कारण पैदल निकलने में यहां उभरे गड्ढे और छडिय़ोंं से भी चलने में समस्या हुई। पुलिया के दोनों ओर न तो सुरक्षा के लिए रैलिंग थी, न ही लोगों को बाढ़ में निकलने से रोकने के लिए सूचना या संकेतक बोर्ड। नीलगढ़ निवासी एक व्यक्ति 20 रुपए में यात्रियों की जान हथेली पर रखकर उन्हें पार करा रहा था। वाहनों को भी खतरा झेलकर निकाला गया। हरदा के महात्मा गांधी स्कूल में पढ़ाई कर घर लौट रहे नीलगढ़ निवासी छात्र गौतम, पदम, भवानी हो या नन्हीं बच्ची को लेकर नदी पार करने वाले आकाश कर्मा। सभी को जोखिम उठाकर नदी पार करना पड़ा। पूर्व में हुए हादसों से सबक लेकर लोगों को ऐसा करने से रोका नहीं जा रहा।
सड़कों पर जलभराव हुआ, वाहनों के हेडलाइट जले
शहर में गुरुवार को दिनभर रुक-रुककर जोरदार बारिश हुई। नालियां उफान मारने से सड़कों पर जलभराव हो गया। इस दौरान वाहन चालकों ने बेहद सतर्कता बरती। तेज बारिश के कारण उन्होंने हेडलाइट जलाकर वाहन निकाले।
रास्ते बंद होने से स्कूली बच्चे परेशान रहे
तेज बारिश के कारण कमताड़ा सहित अन्य गांवों में जलभराव की स्थिति रही। पानी निकासी में रुकावट से ऐसा हुआ। कमताड़ा से बीड़ का रास्ता बंद हो गया। स्कूली बच्चों ने खासी फजीहत झेली।
अजनाल नदी का जलस्तर बढ़ा।
वनांचल सहित समूचे क्षेत्र में हो रही जोरदार बारिश से अजनाल नदी उफान पर रही। वहीं माचक और गंजाल नदी में भी बाढ़ की स्थिति रही। अंचल में लगातार बारिश से नर्मदा का जलस्तर भी बढ़ता जा रहा है।
बीते साल से ९.५ इंच ज्यादा हो चुकी औसत बारिश
जिले में बीते साल से २४३.४ मिमी (९.५ इंच) ज्यादा औसत बारिश हो चुकी है। 1 जून से अब तक जिले में 6 36 .3 मिमी औसत वर्षा दर्ज की गई है। गत वर्ष की इसी अवधि की औसत वर्षा 392.9 मिमीहै। अधीक्षक भू-अभिलेख ने बताया कि अभी तक हरदा में 6 04.7 (गत वर्ष 417.0 मिमी), टिमरनी में 748 .4 (गत वर्ष 421.8 मिमी) व खिरकिया में 556 .0 मिमी (गत वर्ष 340.0 मिमी) औसत वर्षा दर्ज की गई है। पिछले 24 घंटों में (गुरुवार सुबह ८ बजे तक) हरदा में 56 .6 मिमी, टिमरनी में 42.0 मिमी व खिरकिया में 10.4 मिमी वर्षा दर्ज की गई है। जिले की सामान्य वर्षा 126 1.7 मिमी है।
संकेतकों को फिर से निकालने का खतरा क्या है?
सामान्य तौर पर लोग कहते पाये जाते हैं कि अचानक उनकी छठी इंद्री जाग्रत हो उठी और आसन्न खतरे का संकेत मिलते ही सावधानी के कारण बाल-बाल बच गए.लेकिन क्या हर साधारण व्यक्ति में छठी इंद्री वास्तव में जाग्रत की जा सकती है?
इंद्री के द्वारा हमें बाहरी विषयों - रूप , रस , गंध , स्पर्श एवं शब्द - का तथा आभ्यंतर विषयों - सु:ख दु:ख आदि-का ज्ञान प्राप्त होता है. इद्रियों के अभाव में हम विषयों का ज्ञान किसी प्रकार प्राप्त नहीं कर सकते. इसलिए तर्कभाषा के अनुसार इंद्रिय वह प्रमेय है जो शरीर से संयुक्त , अतींद्रिय (इंद्रियों से ग्रहित न होनेवाला) तथा ज्ञान का करण हो (शरीरसंयुक्तं ज्ञानं करणमतींद्रियम्).
कहा जाता है कि पाँच इंद्रियाँ होती हैं- जो दृश्य , सुगंध , स्वाद , श्रवण और स्पर्श से संबंधित होती हैं. किंतु एक और संकेतकों को फिर से निकालने का खतरा क्या है? छठी इंद्री भी होती है जो दिखाई नहीं देती , लेकिन उसका अस्तित्व महसूस होता है. वह मन का केंद्रबिंदु भी हो सकता है या भृकुटी के मध्य स्थित आज्ञा चक्र जहाँ सुषुम्ना नाड़ी स्थित है.
सिक्स्थ सेंस से संबंधित कई किस्से-कहानियाँ किताबों में भरे पड़े हैं. इस ज्ञान पर कई तरह की फिल्में भी बन चुकी हैं और उपन्यासकारों ने इस पर उपन्यास भी लिखे हैं. प्राचीनकाल या मध्यकाल में छठी इंद्री ज्ञान प्राप्त कई लोग हुआ करते थे , लेकिन आज कहीं भी दिखाई नहीं देते तो उसके भी कई कारण हैं.
मस्तिष्क के भीतर कपाल के नीचे एक छिद्र है , उसे ब्रह्मरंध्र कहते हैं , वहीं से सुषुम्ना रीढ़ से होती हुई मूलाधार तक गई है. सुषुम्ना नाड़ी जुड़ी है सहस्रकार से.
इड़ा नाड़ी शरीर के बायीं तरफ स्थित है तथा पिंगला नाड़ी दायीं तरफ अर्थात इड़ा नाड़ी में चंद्र स्वर और पिंगला नाड़ी में सूर्य स्वर स्थित रहता है. सुषुम्ना मध्य में स्थित है , अतः जब हमारे दोनों स्वर चलते हैं तो माना जाता है कि सुषम्ना नाड़ी सक्रिय है. इस सक्रियता से ही सिक्स्थ सेंस जाग्रत होता है।
छठी इंद्री के जाग्रत होने से व्यक्ति के भविष्य में झाँकने की क्षमता का विकास होता है. अतीत में जाकर घटना की सच्चाई का पता लगाया जा सकता है. मीलों दूर बैठे व्यक्ति की बातें सुन सकते हैं. किसके मन में क्या विचार चल रहा है इसका शब्दश: पता लग जाता है. एक ही जगह बैठे हुए दुनिया की किसी भी जगह की जानकारी पल में ही हासिल की जा सकती है. छठी इंद्री प्राप्त व्यक्ति से कुछ भी छिपा नहीं रह सकता और इसकी क्षमताओं के विकास की संभावनाएँ अनंत हैं.
वैज्ञानिक कहते हैं कि दिमाग का सिर्फ 15 से 20 प्रतिशत हिस्सा ही काम करता है। हम ऐसे पोषक तत्व ग्रहण नहीं करते जो मस्तिष्क को लाभ पहुँचा सकें . समस्त वायुकोषों,फेफड़ों और हृदय के करोड़ों वायुकोषों तक श्वास द्वारा हवा नहीं पहुँच पाने के कारण वे निढाल से ही पड़े रहते हैं. उनका कोई उपयोग नहीं हो पाता.
चेकोस्लोवाकिया के परामनोवैज्ञानिक डॉ. मिलान रायजल ने सामान्य व्यक्तियों में अतींद्रिय एवं पराशक्ति जागृत करने के बहुत से सफल संकेतकों को फिर से निकालने का खतरा क्या है? प्रयोग किये हैं.इन प्रशिक्षण एवं प्रयोगों में ये शक्तियां सामान्यतः वह सम्मोहन क्रिया द्वारा जागृत करते हैं.
एक दिन प्राग स्थित अपनी प्रयोगशाला में उन्होंने इन प्रयोगों में सहायिका एवं प्रशिक्षण प्राप्त कर रही जोसेफ्का से कहा कि हम यह प्रयास करेंगे कि भविष्य की किसी दुर्घटना को पहले से जानकर उसे बदल सकते हैं.यानि क्या भविष्य की नियति में हम दखल भी दे सकते हैं.यदि आपको यह पता चल जाय कि आपका कोई परिचित भयंकर दुर्घटना का शिकार होने वाला है, तो क्या फिर भी वह दुर्घटना जरूर ही होकर रहेगी या उस व्यक्ति को आपके द्वारा दी गई पूर्व चेतावनी से वह टल भी सकती है? यदि भविष्य को बदला जा सकता है तो कितना,पूरी तरह से या आंशिक रूप में.
रायजल ने जोसेफ्का से अपनी किसी मित्र संकेतकों को फिर से निकालने का खतरा क्या है? की ऐसी किसी घटना का भविष्य-दर्शन करने को कहा,जिससे उसे बचना चाहिए.फिर उस मित्र को होने वाली घटना का पूर्व संकेत देकर,परिणाम की प्रतीक्षा करने को कहा.
जिस लड़की के भविष्य की दुर्घटना के पूर्व दर्शन का चयन किया गया वह प्राग से पचास मील दूर रहती थी.तंद्रा की अवस्था में जोसेफ्का रायजल के आदेशों का पालन करती रही.उसने होने वाली घटना के बारे में बताया कि उसकी मित्र कार से शहर से बाहर जा रही है और हाइवे पर एक लॉरी से उसकी संकेतकों को फिर से निकालने का खतरा क्या है? कार की जबरदस्त टक्कर हो जाती है और वह गंभीर अवस्था में घायल पड़ी है.
जोसेफ्का को जागृत कर सामान्य अवस्था में लाया गया,जो दर्दनाक दृश्य उसने देखा था,उसके प्रभाव से वह कांप रही थी.उसने सोचा कि वह दिन निकलते ही अपनी सहेली को इसके बारे में संकेत कर देगी. अगली सुबह उसने अपनी सहेली को फोन कर इस बारे में बताना शुरू ही किया था कि उसकी माँ ने कहा-अब क्या फायदा? बहुत देर हो चुकी है और वह अस्पताल में गंभीर अवस्था में पड़ी है.
आश्चर्य की बात यह थी कि जोसेफ्का न तो कोई रूहानी माध्यम थी,न ही अतींद्रिय संपन्न कोई सिद्ध लड़की,जिसे रायजल ने कहीं से खोज निकाला हो.कुछ ही महीने पहले जब रायजल से उसकी मुलाकात हुई थी,तो उसमें इस प्रकार की कोई शक्ति नहीं थी.रायजल ने प्रशिक्षण की जी विलक्षण प्रणाली खोज निकाली उसी से उसे यह क्षमता प्राप्त हो सकी.
डॉ. रायजल ही ऐसे पहले परामनोवैज्ञानिक हैं,जिन्होंने ऐसी प्रणाली खोज निकाली है,जिसके द्वारा किसी भी रास्ता चलते सामान्य व्यक्ति में छठी इंद्री जागृत की जा सकती है.प्रसिद्ध चेक हिंदी लेखक और कवि ओदोलेन स्मेकल ने भी रायजल के प्रयोगों की प्रशंसा की है.
भविष्य का पूर्वाभास,किसी के मन की बातें पढ़ लेना – इन सब ऋद्धियों-सिद्धियों का भंडार अचेतन मन की किन्हीं परतों में सुरक्षित है.परामनोवैज्ञानिकों का मंतव्य है कि वह प्रशिक्षित व्यक्तियों में इन शक्तियों से संपन्न छठी इंद्री का समुचित विकास कर सकते हैं.
रायजल के कुछ प्रशिक्षित शिष्यों ने अतींद्रिय शक्ति के बल पर उन लोकों में भी झांकना शुरू किया जिन्हें हमारी आँखों से देखना संभव नहीं.
पराशक्ति ऋद्धियों-सिद्धियों के अतिरिक्त मस्तिष्क में असंख्य प्रतिभाएं भी सुरक्षित हैं.अब यह मान्यता जोर पकड़ती जा रही है कि इस चेतन तत्व के हम जीवनभर में एक बहुत ही छोटे से अंश का ही उपयोग कर पाते हैं.यदि विभिन्न प्रतिभाओं को वोक्सित और जाग्रत किया जा सके तो हम समृद्धिशाली प्रतिभाओं के स्वामी हो सकते हैं.
इसी दिशा में रूसी परामनोवैज्ञानिक डॉ. राईकोव ने भी बहुत से सफल प्रयोग किये हैं.परन्तु राईकोव प्रयोग के लिए आगे आए व्यक्ति को गहरे सम्मोहन में उतार देते हैं और फिर इस तरह के संकेत देते हैं कि ‘आप एक बहुत बड़े चित्रकार हैं’ और वह व्यक्ति चित्र बनाने लगता है.
भारतीय आध्यात्म में ऋद्धि-सिद्धियों को जागृत करने की प्रणाली योग एवं समाधि है.समाधि में सम्मोहन की तरह ही,चेतन अवस्था तो लुप्त हो जाती है और साधक अपनी धारणानुसार अचेतन लोक में ही विचरता है,और धीरे-धीरे अचेतन की परतों से ही विभिन्न शक्तियां खींच लेता है.यह दीर्घकालीन और समय साध्य प्रणाली है.यदि परामनोवैज्ञानिकों के प्रयोगों से कोई नई प्रणाली सर्वसुलभ हो गई तो एक दिन सर्वसाधारण व्यक्ति के लिए उन पराशक्तियों को प्राप्त करना संभव हो जाएगा,जो अभी तक सिद्ध योगियों की ही संपत्ति मानी जाती हैं.
संकेतकों को फिर से निकालने का खतरा क्या है?
मोदी सरकार संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट पर खुश हो सकती है। इस रिपोर्ट में भारत में गरीबी विरुद्ध लड़ाई में भारत सरकार के प्रयासों की सराहना की गई है। रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में स्वास्थ्य, स्कूली शिक्षा समेत विभिन्न क्षेत्रों में हुई प्रगति से बड़ी संख्या में लोग गरीबी के दलदल से बाहर निकल आए हैं। संयुक्त राष्ट्र की इस रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2006 से 2016 के बीच रेकॉर्ड 27.10 करोड़ लोग गरीबी से बाहर निकले हैं। खाना पकाने के ईंधन, साफ-सफाई और पोषण जैसे क्षेत्रों में मजबूत सुधार के साथ बहुआयामी गरीबी सूचकांक वैल्यू में सबसे बड़ी गिरावट आई है। गरीबी के खिलाफ लड़ाई में यूपीए सरकार की प्रगति को भी रेखांकित किया जाना चाहिए क्योंकि 2006 से 2014 तक देश में यूपीए की सरकार कार्यरत थी।
वैश्विक बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एमपीआई) 2019 नामक रिपोर्ट गुरुवार संकेतकों को फिर से निकालने का खतरा क्या है? को जारी की गई । रिपोर्ट में 101 देशों में 1.3 अरब लोगों का अध्ययन किया गया। इसमें 31 न्यूनतम आय, 68 मध्यम आय और 2 उच्च आय वाले देश थे। विभिन्न पहलुओं के आधार पर ये लोग गरीबी में फंसे थे यानी गरीबी का आकलन सिर्फ आय के आधार पर नहीं बल्कि स्वास्थ्य की खराब स्थिति, कामकाज की खराब गुणवत्ता और हिंसा का खतरा जैसे कई संकेतकों के आधार पर किया गया।
रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 2006 से 2016 के बीच 27.10 करोड़ लोग, जबकि बांग्लादेश में 2004 से 2014 के बीच 1.90 करोड़ लोग गरीबी से बाहर निकले। इसमें 10 चुने गए देशों में भारत और कम्बोडिया में एमपीआई मूल्य में सबसे तेजी से कमी आई और उन्होंने सर्वाधिक गरीब लागों को बाहर निकालने में कोई कसर नहीं छोड़ी। रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2005-06 में भारत के करीब 64 करोड़ लोग (55.1 प्रतिशत) गरीबी में जी रहे थे, जो संख्या घटकर 2015-16 में 36.9 करोड (27.9 प्रतिशत) पर आ गई। इस प्रकार, भारत ने बहुआयामी यानी विभिन्न स्तरों और उक्त 10 मानकों में पिछड़े लोगों को गरीबी से बाहर निकालने में उल्लेखनीय प्रगति की है।
इससे पूर्व हाल ही में अमेरिकी शोध संस्था की ओर से भारत में गरीबी को लेकर जारी आंकड़े मोदी सरकार को सुकून देने वाले थे । रिपोर्ट में दावा किया गया था कि पिछले कुछ साल में भारत में गरीबों की संख्या बेहद तेजी से घटी हैं। सबसे अच्छी बात यह है कि भारत के ऊपर से सबसे ज्यादा गरीब देश होने का ठप्पा भी खत्म हो गया है। देश में हर मिनट 44 लोग गरीबी रेखा के ऊपर निकल रहे हैं। यह दुनिया में गरीबी घटने की सबसे तेज दर है। यह दावा अमेरिकी शोध संस्था ब्रूकिंग्स के ब्लॉग, फ्यूचर डेवलपमेंट में जारी रिपोर्ट में किया गया। रिपोर्ट के अनुसार देश में 2022 तक 03 फीसदी से कम लोग ही गरीबी रेखा के नीचे होंगे। वहीं 2030 तक बेहद गरीबी में जीने वाले लोगों की संख्या देश में न के बराबर रहेगी।
विश्व बैंक की एक रिपोर्ट पर गौर करें तो वर्ष 2004 से 2011 के बीच भारत में गरीब लोगों की संख्या 38.9 फीसदी से घट कर 21.2 फीसदी रह गई। वर्ष 2011 में भारत में लोगों की क्रय क्षमता 1.9 डॉलर (करीब 125 रुपये) प्रति व्यक्ति के करीब रही। रिपोर्ट के मुताबिक अत्यंत गरीबी के दायरे में वह आबादी आती है जिसके पास जीवनयापन के लिए रोजाना 1.9 डॉलर (करीब 125 रुपये) भी नहीं होते। आर्थिक विशेषज्ञों का मानना है कि देश में तेज आर्थिक विकास के चलते गरीबी घटी है।
विश्व बैंक के मुताबिक दुनिया में करीब 76 करोड़ गरीब हैं इनमें भारत में करीब 22.4 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे जिंदगी गुजार रहे हैं। भारत के 7 राज्यों छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, ओडिशा, राजस्थान और यूपी में करीब 60 प्रतिशत गरीब अबादी रहती है। 80 प्रतिशत गरीब भारत के गांवों में रहते हैं। लोकसभा में भारत सरकार द्वारा दी गई एक जानकारी के अनुसार हमारे देश की जनसंख्या सवा सौ करोड़ से ज्यादा है। इसमें करीब 27 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे (बीपीएल) जीवनयापन करते हैं। इनमें से अनुसूचित जनजाति के 45 प्रतिशत और अनुसूचित जाति के 31.5 प्रतिशत के लोग इस रेखा के नीचे आते हैं।
विभिन्न स्तरों पर गरीबी खत्म किये जाने के दावे स्वतंत्र विश्लेषक सही नहीं मानते है। मगर यह अवश्य कहा जा सकता है कि पिछले एक दशक में गरीबी उन्मूलन के प्रयास जरूर सिरे चढ़े है। सरकारी स्तर पर यदि ईमानदारी से प्रयास किये जाये और जनधन का दुरूपयोग नहीं हो तो भारत शीघ्र गरीबी के अभिशाप से मुक्त हो सकता है।
खुली आर्थिकी में सावधानियाँ जरूरी
उन्न्त बीज वाली फसलों.. खासकर सब्जियों में बीमारियों का प्रकोप इतना अधिक है कि न चाहते हुए भी किसान ‘कीटनाशकम् शरणम् गच्छामि’ को मजबूर हो रहा है। भारत की जलविद्युत, नहरी और शहरी जलापूर्ति परियोजनाओं में अन्तरराष्ट्रीय संगठनों की दिलचस्पी जगजाहिर है। अपने पर्यावरण पार्टनरों द्वारा मचाए स्वच्छता, प्रदूषण मुक्ति और कुपोषण के हो-हल्ले के जरिए भी ये अन्तरराष्ट्रीय संगठन ‘आर ओ’, शौचालय, मलशोधन संयन्त्र, दवाइयाँ और टीके ही बेचते हैं। ये कहते हैं कि कुपोषण मुक्ति के सारे नुख्से इनके पास हैं। ये ‘हैंड वाश डे’ के जरिए ‘ब्रेन वाश’ का काम करते हैं। वैश्विक आर्थिकी के लिये भारत के दरवाज़े खोले हुए हमें 25 वर्ष तो हो ही गए। बड़े पैकेज, निवेश, आउटसोर्सिंग के मौके, सेवा क्षेत्र का विस्तार, वैश्विक स्तर पर प्रतिद्वन्दिता के कारण ग्राहक को फायदे जैसे गिनाए तात्कालिक लाभ से तो हम सभी परिचित हैं ही। जरूरी है कि दूरगामी लाभ-हानि के मोर्चे पर भी कुछ मन्थन कर लें। यूँ भी किसी भी प्रयोग के लाभ-हानि के मन्थन के लिये 25 वर्ष पर्याप्त होते हैं। मैं अर्थशास्त्री नहीं हूँ।
ज़मीन पर जो कुछ सहज रूप में देख-सुन पा रहा हूँ, उसी को आधार बनाकर कुछ चुनिन्दा पहलुओं पर आकलन पेश कर रहा हूँ। मकसद है कि हम सभी इन बिन्दुओं पर जरा और गहराई से समझें और फिर लगे कि सावधान होने की जरूरत है, तो खुद भी सावधान हों और दूसरों को भी सावधान करें।
खुली आर्थिकी के चाल चलन
विश्व व्यापार संगठन, विश्व इकोनॉमी फोरम, विश्व बैंक, अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष आदि ऐसे कई संगठन, जिनके नाम के साथ ‘विश्व’ अथवा ‘अन्तरराष्ट्रीय’ लगा है, खुली अर्थिकी के हिमायती भी हैं और संचालक भी। यह बात हम सभी जानते हैं। किन्तु बहुत सम्भव है कि खुली आर्थिकी के चाल चलन से हम सभी परिचित न हों। इनसे परिचित होना हितकर भी है और अपनी अर्थव्यवस्था और आदतों को बचाने के लिये जरूरी भी।
गौर कीजिए कि ये अन्तरराष्ट्रीय संगठन कुछ देशों की सरकारों, बहुद्देशीय कम्पनियों और न्यासियों के गठजोड़ हैं, जो दूसरे देशों की पानी-हवा-मिट्टी की परवाह किए बगैर परियोजनाओं को कर्ज और सलाह मुहैया कराते हैं; निवेश करते हैं। ऐसी परियोजनाओं के जरिए लाभ के उदाहरण हैं, तो पर्यावरण के सत्यानाश के उदाहरण भी कई हैं। उन्नत बीज, खरपतवार, कीटनाशक, उर्वरक और ‘पैक्ड फूड’ के जरिए भारत की खेती, खाना और पानी इनके नए शिकार हैं।
बीजों व उर्वरकों में मिलकर खरपतवार की ऐसी खेप आ रही है कि किसान उन्हें खोदते-खोदते परेशान हैं। उन्न्त बीज वाली फसलों.. खासकर सब्जियों में बीमारियों का प्रकोप इतना अधिक है कि न चाहते हुए भी किसान ‘कीटनाशकम् शरणम् गच्छामि’ को मजबूर हो रहा है। भारत की जलविद्युत, नहरी और शहरी जलापूर्ति परियोजनाओं में अन्तरराष्ट्रीय संगठनों की दिलचस्पी जगजाहिर है।
अपने पर्यावरण पार्टनरों द्वारा मचाए स्वच्छता, प्रदूषण मुक्ति और कुपोषण के हो-हल्ले के जरिए भी ये अन्तरराष्ट्रीय संगठन ‘आर ओ’, शौचालय, मलशोधन संयन्त्र, दवाइयाँ और टीके ही बेचते हैं। ये कहते हैं कि कुपोषण मुक्ति के सारे नुख्से इनके पास हैं। ये ‘हैंड वाश डे’ के जरिए ‘ब्रेन वाश’ का काम करते हैं।
ये साधारण नमक को नकार कर, आयोडीन युक्त नमक को कुतर्क परोसते हैं। इस तरह तीन रुपए किलो नमक की जगह, 16 संकेतकों को फिर से निकालने का खतरा क्या है? रुपए किलो में नमक का बाजार बनाते हैं। जबकि यह सिद्ध पाया गया कि तराई के इलाके छोड़ दें, तो भारत के अधिकतर इलाकों की परम्परागत खानपान सामग्रियों के जरिए जरूरत भर का आयोडीन शरीर में जाता ही है। आयोडाइज्ड नमक खाने से इसकी अतिरिक्त मात्रा से लाभ के स्थान पर नुकसान की बात ज्यादा कही जा रही है।
कितना फाइन, रिफाइंड?
इसी तर्ज पर याद कीजिए कि करीब दो दशक पहले भारत में साधारण तेल की तुलना में रिफाइंड तेल से सेहत के अनगिनत फायदे गिनाए गए। डॉक्टर और कम्पनियों से लेकर ग्राहकों तक ने इसके अनगिनत गुण गाए। हमारे कोल्हु पर ताला लगाने की कुचक्र इतना सफल हुआ कि हमारी गृहणियों ने भी शान से कहा - “कित्ता ही महंगा हो; हमारे इनको को रिफाइंड ही पसन्द है।’’ इस पसन्द ने हमारे कोल्हुओं को कम-से-कम शहरों में तो ताला लगवा ही दिया।
रिफाइंड को लेकर विज्ञान पर्यावरण केन्द्र की रिपोर्ट को लेकर कुछ वर्ष पूर्व खुली आँखों से हम सब परिचित हैं ही। रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत के बाजार में बिक रहे रिफाइंड तेलों में मानकों की पालना नहीं हो रही। लिये गए नमूनों में तेल को साफ करने में इस्तेमाल किए जाने वाले रसायन, तय मानक से अधिक स्तर तक मौजूद पाए गए। ऐसे रसायनों को शारीरिक रसायन सन्तुलन को बिगाड़कर, शरीर को खतरनाक बीमारी का शिकार बनाने वाला शिकारी माना गया। दवा करते गए, मर्ज बढ़ता गया। यही हाल है।
पिछले वर्षों एक अमेरिकी शोध आया - ‘कोल्ड ब्रिज ऑयल से अच्छा कोई नहीं।’ ‘कोल्ड ब्रिज ऑयल’ यानी ठंडी पद्धति से निकाला गया तेल। कोल्हु यही तो करता है। कोल्हु में तेल निकालते वक्त आपने पानी के छींटे मारते देखा होगा। यही वह तरीका है, जिसे अब अमेरिका के शोध भी सर्वश्रेष्ठ बता रहे हैं और हमारे डॉक्टर भी।
नए आर्थिक केन्द्रों को डम्प एरिया बनाने की साजिश
इतना ही नहीं, हमारे कुरता-धोती और सलवार-साड़ी कोे पोंगा-पिछड़ा बताकर, दुनिया के देश, पुराने कपड़ों की बड़ी खेप हमारे जैसे मुल्क में खपा रहे हैं। यह हमारी संस्कृति पर भी हमला है और अर्थिकी पर भी। पुर्नोपयोग के नाम पर बड़ी मात्रा में इलेक्ट्रॉनिक, प्लास्टिक और दूसरा कचरा विदेशों से आज भारत आ रहा है। गौर कीजिए कि ये कचरा खासकर, एशिया, अफ्रीका और लातिनी अमेरिका के देशों में भेजा जा रहा है। विश्व भूगोल के ये तीनों क्षेत्र, सशक्त होते नए आर्थिक केन्द्र हैं।
दुनिया के परम्परागत आर्थिक शक्ति केन्द्रों को इनसे चुनौती मिलने की सम्भावना सबसे ज्यादा है। पहले किसी देश को कचराघर में तब्दील करना और फिर कचरा निष्पादन के लिये अपनी कम्पनियों को रोज़गार दिलाने का यह खेल कई स्तर पर साफ देखा जा सकता है। इसके जरिए वे अपने कचरे के पुनर्चक्रीकरण का खर्च बचा रहे हैं, सो अलग।
केन्द्रीय पर्यावरण मन्त्रालय की वर्ष 2015-16 की समिति ने विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों को अपने कचरे का डम्प एरिया बनाए जाने पर आपत्ति जताई है और विधायी तथा प्रवर्तन तन्त्र विकसित करने की भी सिफारिश की है। ई-कचरा, इकट्ठा करने के अधिकृत केन्द्रों को पंजीकृत करने को कहा गया है। सिफारिश में ई-कचरे को तोड़कर पुनर्चक्रीकरण प्रक्रिया के जरिये, कचरे के वैज्ञानिक निपटान पर जोर दिया गया है।
खेल खोलती एक रिपोर्ट
जरूरी है कि खुली आर्थिकी के संचालकों की नीयत व हकीक़त का विश्लेषण करते वक्त ‘विश्व इकोनॉमी फोरम रिपोर्ट-जनवरी 2013’ को अवश्य पढ़ें। फोरम रिपोर्ट साफ कहती है कि आर्थिक और भौगोलिक शक्ति के उत्तरी अमेरिका और यूरोप जैसे परम्परागत केन्द्र अब बदल गए हैं। लैटिन अमेरिका, एशिया और दक्षिण अफ्रीका उभरती हुई आर्थिकी के नए केन्द्र हैं। तकनीक के कारण संचार, व्यापार और वित्तीय प्रबन्धन के तौर-तरीके बदले हैं। अब हमें भी बदलना होगा।
फोरम रिपोर्ट सरकारों, कारपोरेट समूहों और अन्तरराष्ट्रीय न्यासियों के करीब 200 विशेषज्ञों ने तैयार की है। सरकार, कारपोरेट और अन्तरराष्ट्रीय न्यासियों के इस त्रिगुट में गैर सरकारी संगठनों को शामिल करने का इरादा जाहिर करते हुए रिपोर्ट ‘एड’ के जरिए ‘ट्रेड’ के मन्त्र सुझाती है।
खुली आर्थिकी में सावधानियाँ जरूरी
छह मई को राज्यसभा में सांसद राजीव शुक्ला ने बताया कि कोलकाता की एक गारमेंट कम्पनी के उत्पाद के नाम, स्टीकर आदि का हुबहू नकली उत्पाद चीन में तैयार हो रहा संकेतकों को फिर से निकालने का खतरा क्या है? है। इसमें चिन्ता की बात यह है कि असली कम्पनी करीब 400 करोड़ रुपए का निर्यात कर रही है और चीन, उसी के नाम का नकली उत्पाद तैयार कर लगभग 900 करोड़ का निर्यात कर रहा है। कम्पनी ने तमाम दूतावासों से लेकर भारत सरकार के वाणिज्य मन्त्रालय तक में शिकायत की। नतीजा अब तक सिफर ही है।
कुल मिलाकर कहना यह है कि खुली हुई आर्थिकी के यदि कुछ लाभ हैं तो खतरे भी कम नहीं। ये खतरे अलग-अलग रूप धरकर आ रहे हैं; आगे भी आते रहेंगे। अब सतत् सावधान रहने का वक्त है; सावधान हों। जरूरत, बाजार आधारित गतिविधियों को पूरी सतर्कता व समग्रता के साथ पढ़ने और गुनने की है।
इस समग्रता और सतर्कता के बगैर भ्रम भी होंगे और ग़लतियाँ भी। अतः अपनी जीडीपी का आकलन करते वक्त प्राकृतिक संसाधन, सामाजिक समरसता और ‘हैप्पीनेस इंडेक्स’ जैसेे समग्र विकास के संकेतकों को कभी नहीं भूलना चाहिए। पूछना चाहिए कि पहले खेती पर संकट को आमन्त्रित कर, फिर सब्सिडी देना और खाद्यान्न आयात करना ठीक है या खेती और खाद्यान्न को संजोने की पूर्व व्यवस्था व सावधानी पर काम करना?
स्वयंसेवी संगठनों कोे भी चाहिए कि सामाजिक/प्राकृतिक महत्व की परियोजनाओं को समाज तक ले जाने से पहले उनकी नीति और नीयत को अच्छी तरह जाँच लें, तो बेहतर। ‘गाँधी जी का जन्तर’ याद रख सकें, तो सर्वश्रेष्ठ।
अवसाद से हृदय रोग का जोखिम, खासकर बुजुर्ग महिलाओं के लिए ये है कार्डियोवस्कुलर डिजीज का खास संकेतक
इस नए अध्ययन में शोधकर्ताओं ने स्पेन में चल रहे छह वर्षीय मल्टी सेंटर रैंडेमाइज्ड ट्रायल के डाटा का इस्तेमाल किया है। इस ट्रायल में 55-75 वर्ष उम्र वर्ग के पुरुषों तथा 60-75 वर्ष उम्र वर्ग की महिलाओं पर भोजन का ओवरवेट के संबंधों की पड़ताल की गई।
वाशिंगटन, एएनआइ। मानसिक स्वास्थ्य का संबंध फिजिकल फिटनेस से होने की बात तो हमेशा से ही कही जाती रही है। समय-समय पर वैज्ञानिक शोधों से भी इसकी पुष्टि भी होती रही है। अब एक नए शोध में भी बताया गया है कि बुजुर्गो में अवसाद से कार्डियोवस्कुलर (धमनी और हृदय संबंधी) रोगों का जोखिम बढ़ता है।
स्पेन की यूनिवर्सिटी आफ ग्रेनेडा के शोधकर्ता सैंड्रा मार्टिन प्लेज और उनकी टीम के अगुआई में किया गया यह अध्ययन 'पीएलओएस वन' नामक जर्नल में प्रकाशित हुआ है।
ऐसा माना जाता रहा है कि कार्डियोवस्कुलर डिजीज और अवसाद इन्फ्लैमेशन (सूजन या जलन) तथा आक्सीडेटिव स्ट्रेस जैसे समान जोखिम वाले कारकों के कारण आपस में जुड़े हुए हैं। यद्यपि यह भी दर्शाया जा चुका है कि अवसाद कार्डियोवस्कुलर डिजीज बढ़ने का एक जोखिम वाला कारक (फैक्टर) हो सकता है। लेकिन अवसाद का कार्डियोवस्कुलर स्वास्थ्य पर संभावित परिणाम को विश्लेषित करते हुए बहुत कम अध्ययन हुए हैं।
इस नए अध्ययन में शोधकर्ताओं ने स्पेन में चल रहे छह वर्षीय मल्टी सेंटर रैंडेमाइज्ड ट्रायल के डाटा का इस्तेमाल किया है। इस ट्रायल में 55-75 वर्ष उम्र वर्ग के पुरुषों तथा 60-75 वर्ष उम्र वर्ग की महिलाओं पर भोजन का ओवरवेट के संबंधों की पड़ताल की गई। डाटा के विश्लेषण के लिए 6,545 ऐसे लोगों को चुना गया, जिन्हें अध्ययन की शुरुआत में कोई कार्डियोवस्कुलर या एंडोक्राइन डिजीज नहीं था।
इनमें से प्रत्येक व्यक्ति का कार्डियोवस्कुलर जोखिम स्कोर फ्रैमिंघम आधारित रेगीकोर फंक्शन से आकलित किया गया। प्रतिभागियों को कार्डियोवस्कुलर जोखिम की दृष्टि से लो-रेगीकोर (एलआर), मीडियम-रेगीकोर या हाई/वेरी हाई-रेगीकोर (एचआर) वर्ग में बांटा गया। अवसाद का स्तर अध्ययन की शुरुआत और उसके दो साल बाद प्रश्नावली के आधार पर मापा गया।
इस तरह किया गया अध्ययन
अध्ययन की शुरुआत में एचआर ग्रुप की महिलाओं में एलआर ग्रुप की प्रतिभागियों की तुलना में अधिक अवसादग्रस्तता की स्थिति पाई गई। जबकि कुल प्रतिभागियों में, जिनमें अध्ययन की शुरुआत में टोटल कोलेस्ट्राल 160 एमजी/एमएल कम था, वैसे एमआर और एचआर ग्रुप के प्रतिभागियों में एलआर ग्रुप की अपेक्षा ज्यादा अवसाद देखा गया।
इसके उलट जिन प्रतिभागियों में टोटल कोलेस्ट्राल 280 एमजी/एमएल था, ऐसे एमआर और एचआर ग्रुप के लोगों में संकेतकों को फिर से निकालने का खतरा क्या है? एलआर ग्रुप वालों की तुलना में अवसाद का जोखिम कम था।
दो साल के बाद इन प्रतिभागियों की फिर जांच की गई। इन दौरान इन सभी से मेडिटेरेनियन डाइट लेने को कहा गया था। इसमें हर तरह की सब्जियां, फल और अनाज शामिल होते हैं। नट्स और सीड्स से इस डाइट को पौष्टिक बनाया जाता है।
प्रतिभागियों में औसतन अवसाद का स्तर हुआ कम
परीक्षण में पाया गया कि प्रतिभागियों में औसतन अवसाद का स्तर कम हुआ लेकिन सबसे ज्यादा फायदा हाई बेसलाइन कोलेस्ट्राल स्तर वाले एमआर और एचआर ग्रुप वाले लोगों को हुआ, जिनमें अवसाद के स्तर में सबसे ज्यादा कमी आई।
अध्ययन के लेखकों का कहना है कि कार्डियोवस्कुलर रोगों के उच्च और अति उच्च जोखिम अवसाद के लक्षणों से जुड़ा है और यह बात महिलाओं के संदर्भ में खास तौर पर लागू होती है। लेकिन इसके साथ ही मेडिटेरेनियन डाइट जैसे कारकों को लेकर और अध्ययन की जरूरत है।
हालांकि अपने इस अध्ययन के आधार पर लेखकों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि कार्डियोवस्कुलर रोगों के उच्च जोखिम का संबंध खासतौर पर बुजुर्ग महिलाओं में अवसाद के लक्षणों से जुड़ा है।