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तरलता और विश्वसनीयता

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तरलता और विश्वसनीयता

पिछले कुछ साल से संबद्घ पक्षों और देसी- विदेशी तरलता और विश्वसनीयता नीति निर्माताओं के बीच भारतीय रिजर्व बैंक ने दो कारणों से काफी अच्छी साख बनाई है। पहला, वैश्विक बाजारों में लीमन ब्रदर्स जैसे हालात बनने के बाद बैंक ने गवर्नर दुवुरी सुब्बाराव के नेतृत्व और उनके द्वारा उठाए गए कदमों में भरोसा और परिपक्वता दिखाई। दूसरा, बैंक ने नीतिगत मामलों तरलता और विश्वसनीयता में चल रहे रुझान का हिस्सा बनने से इनकार कर दिया। खासतौर पर मंदी से पहले, इस कारण भारत अटलांटिक पार के बैंकिंग और वित्तीय संस्थानों में बहने वाली हवाओं की चपेट में आने से बच गया। हालांकि मार्च के मौद्रिक नीति वक्तव्य से ऐसा लगेगा कि मानो महंगाई से निपटने में केंद्रीय बैंक की नीतियां कारगर साबित नहीं हुई। पिछले वित्त वर्ष के दौरान बैंक ने तीन बार संशोधन कर मुद्रास्फीति का अनुमान बढ़ाया लेकिन वित्त वर्ष के अंत में मुद्रास्फीति बैंक के अनुमान 8 फीसदी के मुकाबले 9 फीसदी रही। इस कहानी में एक चक्कर है। मूल महंगाई, जिसे खाद्य व ईंधन को छोड़कर बाकी उत्पादों के दाम में आई तेजी के आधार पर मापा जाता है, उसमें दिसंबर के बाद से तेजी आई। इससे पता चलता है कि बढ़ती महंगाई का ठीकरा सिर्फ स्थानीय या वैश्विक आपूर्ति शृंखला में कमी के सिर नहीं फोड़ा जा सकता है, जिससे खाद्य व ईंधन के दाम बढ़ते हैं। महंगाई से निपटने के लिए बैंक को और आक्रामकता दिखानी चाहिए।

3 मई को होने वाली सालाना मौद्रिक नीति बैठक एक चौथाई फीसदी के बजाय आधा फीसदी का इजाफा करना चाहिए। अनुभव या पे्रषण से जाहिर होता है कि मूल मुद्रास्फीति मौद्रिक कदमों के प्रति अधिक प्रतिक्रियाशील है। मौजूदा कीमतों के हालात कई कारणों के संयोजन का नतीजा हैं। यह लंबी अवधि तक कृषि की अनदेखी और सब्जी, मुर्गी और मांस जैसी चीजों की सतत आपूर्ति के लिए शृंखला की मौजूदगी के अभाव का नतीजा है। इन उत्पादों के दाम पिछले दो साल से लगातार बढ़ रहे हैं। इसके साथ ही ग्रामीण और अनियमित श्रम बाजार में आए ढांचागत बदलाव के कारण मजदूरी में इजाफा भी इसके लिए जिम्मेदार है। पश्चिमी केंद्रीय तरलता और विश्वसनीयता बैंकों द्वारा तरलता बढ़ाने के कारण वैश्विक स्तर पर जिंसों के भाव में आई तेजी इस कोढ़ में खाज का ही काम कर रही है। इसके अलावा भारत ने अंतरराष्टï्रीय कच्चे तेल की कीमतों के हिसाब से ईंधन के भाव तय करने में काफी देर कर दी है। महंगाई को लेकर गलत अनुमान लगाने के बजाय मौजूदा वृहत हालात और महंगाई को काबू करने में आने वाली जटिलता की कड़वी सच्चाई को स्वीकार करने से आरबीआई की विश्वसनीयता वापस आएगी। लापरवाह मौद्रिक नीति से अर्थव्यवस्था की पूंजी बनाने की क्षमता पर नकारात्मक असर पड़ेगा और आपूर्ति संबंधी नई समस्याएं पैदा हो सकती हैं।

केंद्रीय बैंक को यह ध्यान देना होगा कि वह मौजूदा समस्याओं से निपटने के फेर में नई समस्याएं पैदा नहीं करे। दिल्ली में आर्थिक नीति निर्माण के दिशाहीन होने के बाद यह जरूरी हो गया है कि आरबीआई कुछ कड़े कदम उठाकर अपनी विश्वसनीयता को और मजबूत करे। नए वित्त वर्ष की पहली तिमाही में ही लोगों को वित्त मंत्रालय के गणित पर संदेह हो रहा है और मंत्रालय के आश्वासनों को गंभीरता से लेने वाले कम ही हैं। केंद्रीय बैंक को विकास बनाम महंगाई की चिंता नहीं करनी चाहिए क्योंकि इनसे निपटना वित्त मंत्रालय का काम है, न कि आरबीआई का। ऐसे में सुब्बाराव और केंद्रीय बैंक को लोकप्रियता के बजाय कड़े कदम उठाकर बैंक की विश्वसनीयता बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए।

मौद्रिक नीति: RBI

हाल ही में भारतीय रिज़र्व बैंक (Reserve Bank of India- RBI) की ‘मौद्रिक नीति समिति’ (Monetary Policy Committee- MPC) ने रेपो रेट में कोई बदलाव न करते हुए अपने समायोजन नीति के रुख को जारी रखा है। गौरतलब है कि वर्तमान में COVID-19 महामारी के बीच RBI ने महँगाई की अपेक्षा आर्थिक सुधार को समर्थन को अधिक प्राथमिकता दी है।

तरलता और विश्वसनीयता

देश की आर्थिक प्रगति, मुद्रास्फीति और राजकोषीय सुदृढ़ीकरण से जुड़े तमाम मसलों पर राजकोषीय तरलता और विश्वसनीयता विश्वसनीयता का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। विस्तार से जानकारी दे रहे हैं रथीन रॉय

हाल ही में भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) और केंद्र सरकार के बीच जो समझौता हुआ है उसे भविष्य की ओर एक अहम कदम माना जा सकता है। इस समझौते में आधुनिक मौद्रिक नीतिगत ढांचे (एमपीएफ) की जरूरत को तरलता और विश्वसनीयता स्वीकार किया गया है। इस समझौते में जिस सर्वाधिक अहम नीतिगत आंकड़े का उल्लेख किया गया है, वह है जनवरी 2016 तक मुद्रास्फीति को 6 फीसदी करने का परिचालन लक्ष्य और आने वाले सालों में उसे घटाकर 4 फीसदी के स्तर तक लाना। इसे 2 फीसदी ऋणात्मक या धनात्मक के तरलता और विश्वसनीयता दायरे में रखने की बात भी कही गई है। यह आरबीआई को अधिकार देता है कि वह लक्ष्य को हासिल करने के लिए मौद्रिक उपायों का इस्तेमाल करे। इसमें रीपो दर का प्रयोग प्रमुख है। यह समझौता न केवल स्वरूप में छोटा है बल्कि वह बेहद अहम बातों पर केंद्रित भी है। लेकिन एमपीएफ का डिजाइन अभी तैयार किया जाना बाकी है, परिचालन तो उसके बाद की बात है। ऐसा करने की कोशिश में तकनीकी तथा सांस्थानिक स्तर पर कई अहम मसलों से निपटना होगा।
पहली बात, इस समझौते के अंदर ही कुछ ऐसी बात है जो पहेलीनुमा है। इससे ऐसा प्रतीत होता है मानो अगर मुद्रास्फीति 6 फीसदी का स्तर पार कर जाती है या फिर तीन तिमाहियों तक 2 फीसदी के दायरे का ख्याल नहीं रह पाता तो आरबीआई को विफल माना जाएगा। इसका मतलब यह हुआ कि ऊपरी स्तर पर मुद्रास्फीति का प्रभावी लक्ष्य 6 फीसदी है न कि 4 फीसदी। जबकि निचला लक्ष्य 2 फीसदी है। समझौते में जिस 4 फीसदी के परिचालन लक्ष्य की बात की गई है वह महज एक व्यापक बैंड का सांकेतिक मध्य स्थान है। लेकिन बाजार प्रदर्शन का आकलन करने के लिए इसी आंकड़े का इस्तेमाल करेगा। बहरहाल, समझौते में कहा गया है कि जब तक दायरे का उल्लंघन नहीं होता है तब तक कोई पेशकदमी आवश्यक नहीं है। हां, वैसी स्थिति बनने पर सरकार को यह अधिकार होगा कि वह आरबीआई (विकास के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए) से कहे कि वह ब्याज दरें कम करे। फिर चाहे भले ही मुद्रास्फीति की दर 5-5.5 फीसदी हो। यह एक बड़ी गलती है और इसे जितनी जल्दी ठीक कर लिया जाएगा उतना अच्छा होगा।
दूसरी बात, इस समझौते में यह नहीं बताया गया कि किसी अप्रत्याशित बाहरी झटके की स्थिति में क्या करना होगा? अधिकांश केंद्रीय बैंकों के उलट आरबीआई के पास अनेक जिम्मेदारियां तरलता और विश्वसनीयता हैं। वह सरकार को सांविधिक तरलता अनुपात (एसएलआर) के जरिये घरेलू बचत तक सरकार की प्राथमिक पहुंच सुनिश्चित करता है। वह विनिमय दर की अस्थिरता को कम करने में मदद करेगी। इसके अलावा वह पूंजी खाते पर नियंत्रण को भी बरकरार रखता है और वह प्राथमिकता वाले क्षेत्र को ऋण मुहैया कराके सरकार को औद्योगिक नीति को आकार देने में भी सहायता करता है। समझौता यह नहीं कहता है कि ये दुष्कर जिम्मेदारियां मूल्य स्थिरता बरकरार तरलता और विश्वसनीयता रखने के अलावा हैं। ऐसे में अगर रुपये के मोर्चे पर वर्ष 2013 जैसे हालात दोबारा बनते हैं तो क्या आरबीआई उसका मुकाबला करने के लिए नीतिगत दर का इस्तेमाल करेगा? या फिर वह ऐसा नहीं करेगा? इसके बाद वह क्या मात्रात्मक पूंजी नियंत्रण लागू करेगा? या फिर वह जापान जैसे देशों के साथ स्वैप का इस्तेमाल करेगा? नीतिगत चयन के मोर्चे पर स्पष्टïता का यह अभाव अतीत में देश को नुकसान पहुंचाता रहा है और भविष्य में भी इसकी आशंका को दरकिनार नहीं किया जा सकता है। हाल के दिनों में हम तुर्की और ब्राजील जैसे देशों में ऐसा होते देख चुके हैं। ऐसे में यह अहम है कि समझौते में उल्लिखित मौद्रिक नीति की परिचालन प्रक्रिया में इन सवालों के जवाब में विश्लेषणात्मक स्पष्टïता हो।
एमपीएफ की व्याख्या की सबसे बड़ी चुनौती भीतर से ही है। भारत अपने राजकोषीय जवाबदेही के लक्ष्यों के मोर्चे पर हमेशा चूकता रहा है। इस तरलता और विश्वसनीयता मोर्चे पर सरकार की घोषणाओं की कोई खास विश्वसनीयता नहीं है। जैसा कि हमने हाल ही में देखा। सरकार अच्छे समय में भी राजकोषीय समावेशन को टालने का लोभ संवरण नहीं कर पाती। इन हालात में राजकोषीय घाटे पर मुद्रास्फीति का उल्लेखनीय दबाव है और जब ब्याज दरों का इस्तेमाल मुद्रास्फीति से निपटने में किया जाए तो इसे सावधानीपूर्वक समायोजित किया जाना चाहिए। अगर सरकार अतीत के ढर्रे पर ही व्यवहार करना जारी रखती है और राजकोषीय समावेशन को टालने के लिए ढेरों बहाने पेश किए जाते हैं तो फिर इसका कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। एसएलआर जैसे मौद्रिक नीति संबंधी उपाय सरकार की ओर से ऋण की मांग में होने वाली अप्रत्याशित वृद्घि का समायोजन करेंगे। ऐसी स्थिति में नीतिगत दर में असंगत तरीके से वृद्घि की जाएगी ताकि मुद्रास्फीति के लक्ष्यों की प्राप्ति हो सके। ऐसे में पूरा बोझ निजी क्षेत्र द्वारा वहन किया जाता है। जाहिर है इस बात का विकास और निवेश पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
वित्त आयोग ने हाल में जो अनुशंसाएं की हैं उनसे समस्या में और अधिक इजाफा हो गया। राजकोषीय समावेशन के मोर्चे पर राज्यों का प्रदर्शन काफी अच्छा रहा है लेकिन उनको ऐसा करने के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं है क्योंकि केंद्रीय करों के हस्तांतरण में बढ़ोतरी के बाद सभी राजकोषीय मानक शिथिल होंगे। राजकोषीय मोर्चे पर खुद को जवाबदेह महसूस करने वाले राज्य भी घाटे में बढ़ोतरी की ओर बढ़ सकते हैं क्योंकि ऐसे कुछ राज्यों की उदारतापूर्वक मदद की गई है।
केंद्र में राजकोषीय जवाबदेही निभाने में जो ऐतिहासिक विफलता देखी गई है और इस मोर्चे पर मजबूती दिखाने वाले राज्यों को प्रोत्साहन की जो कमी रही है वह एमपीएफ की विश्वसनीयता के प्रति किसी बाहरी झटके से अधिक जोखिम पैदा करती है। आरबीआई गवर्नर ने गत 4 मार्च को अपने वक्तव्य में इस चुनौती के प्रति अपनी जागरूकता दिखाई थी। उन्होंने राजकोषीय समावेशन के स्थगन को लेकर चिंता प्रकट की थी। वह भविष्य के प्रति इरादे की सराहना तो करते हैं लेकिन यह भी कहते हैं कि आगे बढऩे के क्रम में सक्रिय कदम उठाने होंगे।
मुझे लगता है कि सरकार के स्तर पर इसके काम को लकर स्पष्टïता है लेकिन साझा जवाबदेही सुनिश्चित करने और इसकी विफलता के जोखिम को कम करने के लिए एक सुधार जरूरी है। सरकार को जितनी जल्दी संभव हो राजकोषीय लक्ष्यों के लोकप्रिय सालाना उल्लेख से दूरी बनाकर मध्यावधि का विश्वसनीय ढांचा तैयार करना चाहिए। मैं पहले भी यह दलील दे चुका हूं कि इसके लिए देश की राजकोषीय नीति निर्धारण प्रक्रिया में अहम बदलाव लाने होंगे। मध्य अवधि के वृहद राजकोषीय ढांचे के जरिये राजकोषीय सुदृढ़ीकरण करने और मौद्रिक नीति के जरिये मूल्य स्थिरता की दिशा में काम करके यह सरकार देश के समकालीन आर्थिक इतिहास में जगह बना सकती है।

तरलता की कमी बड़े डेवलपर्स को अप्रत्यक्ष तरलता और विश्वसनीयता लाभ ला सकती है

मनी मार्केट्स में क्रेडिट क्रंच की ऑफ-शूट, रियल एस्टेट डेवलपर्स में आत्मविश्वास का वर्तमान संकट, बड़े संगठित डेवलपर्स के कारण को और मजबूत करेगा, जिन्होंने पिछले कुछ सालों में तेजी से बाजार हिस्सेदारी हासिल की है और अपने साथियों की तुलना में मजबूत उभरा है। कोटक इंस्टीट्यूशनल इक्विटी रिसर्च के मुताबिक। बड़ी सूची की बिक्री से किसी भी संपार्श्विक क्षति को कम किया जाएगा, क्योंकि शीर्ष तीन शहरों में कुल सूची का केवल तरलता और विश्वसनीयता 11 प्रतिशत वें हैरिपोर्ट पूरी तरह से निर्माण के विभिन्न चरणों में शेष राशि के साथ ई पूर्ण श्रेणी है।
कोटक के शीर्ष तीन शहरों के इन्वेंट्री डेटा के विश्लेषण से पता चला है कि कुल मिलाकर, सूची का केवल 13 प्रतिशत (75 मिलियन वर्ग फीट) पूरा हो गया है, जबकि शेष 87 प्रतिशत सूची (618 मिलियन वर्ग फीट) अभी भी है निर्माणाधीन। तनावग्रस्त डेवलपर्स द्वारा मूल्य-आधारित परिसंपत्ति मुद्रीकरण रणनीति, केवल पूर्ण सूची के मामले में अधिक प्रभावी होगी, यह उल्लेखनीय है। एक्कोरडरावना, पूर्ण सूची का कम अनुपात विश्वसनीय अचल संपत्ति डेवलपर्स के लिए बिक्री मूल्य पर क्रेडिट क्रंच के संपार्श्विक क्षति को कम कर सकता है। बिक्री के वर्तमान स्तर पर, मौजूदा सूची में अवशोषित होने के लिए 50 महीने लगेंगे। हालांकि, अगर वृद्धिशील बिक्री अकेले पूर्ण सूची की ओर निर्देशित की जाती है, तो वर्तमान सूची पांच से छह महीने के भीतर अवशोषित की जा सकती है।

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